शुक्रवार, 19 मार्च 2010

मैसूर-तिरुपति-भुज-जामनगर

मैसूर्
भारतीय वायु सेना की फ्लाइंग ब्राँच की परीक्षा देने के लिये मुझे मैसूर जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था. परीक्षा में तो खैर मैं अनुत्तीर्ण रहा; मगर मैसूर का प्रसिद्ध महल तथा एक पहाड़ी पर स्थित जगदम्बा मन्दिर के दर्शन हो गये. और हाँ, वृन्दावन गार्डन तो वाकई लाजवाब था. मौसम ने भी हमारा साथ दिया. गार्डन में प्रवेश के समय हल्की बारिश के बाद इन्द्रधनुष उग आया था. शाम को डाँन्सिंग फाउन्टेन का खूब मजा लिया हमने. (यह 86-87 की बात है)

तिरुपति
90-91 में एक दोस्त (बी सिंह, एटा का रहनेवाला) के साथ तिरुपति के बालाजी के दर्शन के लिये मैं गया था. हमने जानबूझ कर 'स्पेशल' टिकट नहीं लिया. सोचा, भगवान के दर्शन का असली आनन्द तो तब है, जब कई घण्टों की प्रतीक्षा के बाद उनके दर्शन हो. वाकई कई घण्टों के बाद जब बालाजी का दर्शन हुआ, तो हम स्तम्भित रह गये- मानो साक्षात् ईश्वर को ही देख रहे हों. कुछ पलों का यह दर्शन अविस्मरणीय रहा. बाद में 'लड्डू' के लिये लाईन लगने की मेरी हिम्मत नहीं थी. दोस्त के कहने पर लाईन लगा. तब एक व्यक्ति को तीन लड्डू मिलते थे. लड्डू के स्वाद से सारी थकान दूर हो गयी.

भुज
जनवरी' 87 में मैं भुज गया था. मोटी दीवारों से घिरी यह नगरी, लहँगे-चुन्नियों और चाँदी के आभूषणों की दूकानें, सब मिलकर किसी परिकथा की नगरी का आभास दे रहे थे. दुर्भाग्यपूर्ण भूकम्प के बाद इस नगरी का पुनर्निर्माण कैसा हुआ है, पता नही. शायद अब यह एक आधुनिक नगर-जैसा हो. हाँ, भुज से मैं काण्डला भी गया था. अब सोचता हूँ, द्वारिका जाना चाहिये था. खैर, काण्डला जाते वक्त जिस ग्रामीण परिवेश से बस गुजर रही थी, उसकी धुँधली-सी याद अब भी है.

जामनगर
उसी साल नवम्बर में जामनगर गया. इस बार मैं माउँट आबु जाना चाहता था. मगर कुछ कारणों से (जिनमें प्रमुख था- राजस्थान परिवहन कर्मियों की हड़ताल) मुझे आबु रोड रेलवे स्टेशन से ही लौट कर आना पड़ा.

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